नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सत्ता में आने के बाद यह धारणा प्रबल हुई है कि भारतीय मीडिया ने सत्ता के दबाव में घुटने टेक दिए हैं. हालांकि, सत्ता के सामने मीडिया का झुकना कोई नई बात नहीं है.
भारत में पहले भी मजबूत बहुमत वाली सरकारों, जैसे इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के कार्यकाल में, मीडिया पर सत्ता का प्रभाव देखा गया है. लकिन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार का मीडिया प्रबंधन अन्य मजबूत सरकारों से कई मायनों में अलग और प्रभावी रहा है.
यह लेख मोदी के नेतृत्व में भाजपा के मीडिया प्रबंधन के विकास, इसकी रणनीति, और मील के पत्थरों का विश्लेषण करता है.
प्रारंभिक चरण: आक्रामक प्रवक्ता

नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बनने से पहले भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव, कई राज्यों के चुनाव प्रभारी, और पार्टी के आधिकारिक प्रवक्ता रहे थे. प्रवक्ता के रूप में उन्होंने नई आक्रामक शैली अपनाई, जिसमें विपक्षी प्रवक्ताओं की बातों को बीच में टोकना, विवादास्पद मुद्दों पर उकसाना, और तीखे जवाबों से हावी होना शामिल था.
इस शैली ने न केवल मीडिया में भाजपा की उपस्थिति को मजबूत किया, बल्कि वर्तमान प्रवक्ताओं जैसे संबित पात्रा और नलिन कोहली के लिए एक मॉडल भी स्थापित किया. उदाहरण के लिए, 1990 के दशक के अंत और 2000 के दशक की शुरुआत में, मोदी ने टेलीविजन की चर्चाओं में विपक्षी नेताओं की कमजोरियों पर निशाना साधते हुए, भावनात्मक अपील का भी उपयोग किया.
1998 के बाद भाजपा मुख्यालय में शुक्रवार शाम ‘मीडियावर्कशॉप’ शुरू हुई, जहां युवा प्रवक्ताओं वास्तविक प्रश्नोत्तर सत्रों से गुजरते थे. कहा जाता था कि अरुण जेटली अपनी दिन भर की वकालत के बाद भाजपा कार्यालय में भाजपा प्रवक्ताओं को प्रशिक्षित करते थे कि बहस में किस चीज़ को उभारना है या मुद्दों से किस तरह निबटना है. यह मॉडल आज भी पार्टी आईटी‑सेल की साप्ताहिक ब्रीफ़िंग में झलकता है.
गुजरात के मुख्यमंत्री: विवादों का सामना और छवि निर्माण
2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद, नरेंद्र मोदी ने अपनी आक्रामक शैली को और परिष्कृत किया. 2002 के गुजरात दंगों के बाद, जब राष्ट्रीय मीडिया ने उनसे कठिन सवाल पूछे, तो उन्होंने इसे ‘दकियानूसी’ और ‘पूर्वाग्रहग्रस्त’ करार दिया.
2002 में जब चुनाव आयोग ने मध्यावधि चुनाव की अनुमति देने से इनकार किया, तो मोदी ने मुख्य चुनाव आयुक्त जेम्स माइकल लिंगदोह को उनकी ईसाई पृष्ठभूमि पर निशाना लगाया. उनके भाषणों में ‘मियां मुशर्रफ’ या ‘अहमद मियां’ जैसे संबोधनों का उपयोग, एक विशेष समुदाय को लक्षित करने की रणनीति का हिस्सा था, जिसने उनकी छवि को ध्रुवीकरण करने वाले नेता के रूप में मजबूत किया.
2009 के हिंदुस्तान टाइम्स समिट में, जब पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने उनसे दंगों से संबंधित सवाल पूछा, तो मोदी ने न केवल सवाल को टाल दिया, बल्कि पत्रकार पर ही ‘एजेंडा चलाने’ का आरोप लगाया. उन्होंने कहा, ‘आप जैसे पत्रकार गुजरात की जनता के जनादेश को नजरअंदाज करते हैं.’ यह एक मुख्यमंत्री द्वारा राष्ट्रीय मंच पर एक प्रमुख पत्रकार पर खुला हमला था, जो उनकी मीडिया प्रबंधन की आक्रामक रणनीति का प्रतीक था.
एक अन्य साक्षात्कार में, मोदी ने राजदीप पर तंज कसते हुए कहा, ‘मोदी को गाली देने वालों को राज्यसभा की सीट मिलती है, पद्मश्री और पद्मभूषण मिलता है. मेरी शुभकामनाएं हैं कि आप भी इस अभियान को जारी रखें और राज्यसभा पहुंचें.’
इस तरह की टिप्पणियां न केवल व्यक्तिगत हमला थीं, बल्कि मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने की रणनीति का हिस्सा थीं.
गुजरात काल (2001-2014): प्रतिकूल राष्ट्रीय मीडिया और स्थानीय कवरेज़
स्थानीय अख़बारों का दोतरफा उपयोग: ‘संदेश’ और ‘गुजरात समाचार’ में नियमित कॉलम लिखते हुए मोदी ने विकास‑परियोजनाओं के आंकड़े साझा किए और सोशल मीडिया फ़ॉरवर्ड तैयार कराने के लिए वही आंकड़े अंग्रेज़ी स्लाइड‑डेक में बदलवा दिए.
‘सद्भावना उपवास’ लाइव‑कवरेज: 2011 की तीन‑दिवसीय उपवास श्रृंखला की तस्वीरें सरकारी सूचना विभाग ने हर घंटे टीवी चैनलों को ‘फ्री फ़ीड’ में उपलब्ध कराईं; बदले में चैनलों की ऑन‑स्क्रीन ग्राफ़िक्स में ‘विकास पुरुष’ टैग फ़्लैश होता रहा.
राष्ट्रीय मंच पर: सोशल मीडिया और डिजिटल रणनीति
2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान, भाजपा ने डिजिटल और सोशल मीडिया के क्षेत्र में अभूतपूर्व रणनीति अपनाई. नरेंद्र मोदी ने ट्विटर (अब एक्स) और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का उपयोग कर जनता से सीधा संवाद स्थापित किया. उनकी ‘चाय पे चर्चा’ और ‘मन की बात’ जैसे अभियान न केवल मतदाताओं तक पहुंचने में प्रभावी रहे, बल्कि पारंपरिक मीडिया की मध्यस्थता को कम करने में भी सफल रहे.
मोदी की सोशल मीडिया रणनीति में उनकी छवि को एक ‘विकास पुरुष’ और ‘मजबूत नेता’ के रूप में स्थापित करने पर जोर दिया गया. 2014 में उनकी रैलियों की लाइव स्ट्रीमिंग हुई, 3D होलोग्राम तकनीक का उपयोग हुआ, जिसने उन्हें एक साथ कई स्थानों पर ‘उपस्थित’ होने की क्षमता दी. इसने उनकी छवि को जन-केंद्रित नेता के रूप में प्रचारित किया.

सहयोगियों की भूमिका: अरुण जेटली और अमित शाह
मोदी के मीडिया प्रबंधन की सफलता में उनके दो प्रमुख सहयोगी, अरुण जेटली और अमित शाह, महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे. अरुण जेटली, जो अपनी शालीनता और मीडिया से दोस्ताना संबंधों के लिए जाने जाते थे, ने ‘गुड कॉप’ की भूमिका निभाई. वे पत्रकारों के साथ नरम लहजे में बात करते थे और नीतिगत मुद्दों पर तर्कपूर्ण चर्चा करते थे.
दूसरी ओर, अमित शाह ने ‘बैड कॉप’ की भूमिका निभाई, जो आक्रामक और पत्रकारों से उलझने में संकोच नहीं करते थे.
2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान, अमित शाह ने कई साक्षात्कारों में विपक्षी दलों और मीडिया के सवालों को तीखे जवाब दिए. उनकी यह शैली पार्टी कार्यकर्ताओं और समर्थकों में जोश भरने में प्रभावी रही.
जेटली और शाह की यह जोड़ी, संगठनात्मक कौशल और मीडिया प्रबंधन में संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण थी.

वर्तमान रणनीति: नियंत्रण और प्रचार
2014 और 2019 के चुनावों में जीत के बाद भाजपा ने मीडिया प्रबंधन को और परिष्कृत किया. ‘मोदी लहर’ को बनाए रखने के लिए पार्टी ने न केवल पारंपरिक मीडिया, बल्कि डिजिटल और सोशल मीडिया पर भी नियंत्रण स्थापित किया. इसके लिए निम्नलिखित रणनीतियां अपनाई गईं:
मीडिया घरानों पर दबाव: कई मीडिया घराने, या तो प्रत्यक्ष स्वामित्व के माध्यम से या कॉरपोरेट दबाव के जरिए, सरकार के प्रति नरम रुख अपनाने लगे. कुछ प्रमुख न्यूज चैनलों ने सरकार की नीतियों का खुलकर समर्थन किया, जिन्हें ‘गोदी मीडिया’ कहा गया.
नोटबंदी की घोषणा के अगले 50 दिनों तक प्रधानमंत्री के हर संबोधन को सरकारी दूरदर्शन ने अनवरत रिले किया. निजी चैनलों ने भी अक्सर प्रस्तावित पैनल चर्चा रोक कर लाइव फ़ीड दी और इसे ‘नेशनल इम्पोर्टेंस’ के तर्क से जायज़ ठहराया.
2016 और 2019 की सैन्य कार्रवाईयों के वीडियो‑क्लिप सेना की ब्रीफ़िंग के तुरंत बाद जारी हुए. चैनलों को सजेस्टेड हेडलाइन‑टिकर (‘भारत ने दिया करारा जवाब’) भेजे गए, जिसने प्राइम‑टाइम बहसों की भाषा तय कर दी.
सोशल मीडिया सेना: भाजपा की आईटी सेल, अमित मालवीय के नेतृत्व में, ने सोशल मीडिया पर एक मजबूत नेटवर्क बनाया. यह सेल न केवल सरकार की उपलब्धियों का प्रचार करती है, बल्कि विपक्षी नेताओं और आलोचकों के खिलाफ अभियान भी चलाती है. उदाहरण के लिए, 2020 में किसान आंदोलन के दौरान, भाजपा आईटी सेल ने सोशल मीडिया पर #IndiaSupportsCAA और #FarmersWithModi जैसे हैशटैग ट्रेंड कराए.
नियंत्रित साक्षात्कार: मोदी ने अपने कार्यकाल में चुनिंदा साक्षात्कार दिए, जो ज्यादातर उन पत्रकारों या चैनलों को दिए गए जो सरकार के प्रति सहानुभूति रखते थे. उदाहरण के लिए, 2019 में अभिनेता अक्षय कुमार के साथ उनका साक्षात्कार, जो गैर-राजनीतिक और व्यक्तिगत प्रश्नों पर केंद्रित था, ने उनकी छवि को और मानवीय बनाया.

वैश्विक आयोजनों से तैयार हुआ जनमत
Howdy Modi (ह्यूस्टन‑2019) और Namaste Trump (अहमदाबाद‑2020): अमेरिकी टीवी नेटवर्कों ने इन आयोजनों को ‘ट्रंप‑मोदी बंधन’ बताया. भाजपा ने ऐसे वीडियो हिंदी उपशीर्षक के साथ गांव‑स्तरीय वॉट्सऐप ग्रुपों में पहुंचा दिए, यह बताकर कि ‘दुनिया सुन रही है भारत की बात’.

G‑20 भारत अध्यक्षता (2023): देश भर में 34 भाषाओं में मोदी के पोस्टर और अतिथि नेताओं के साथ उनके कट‑आउट—दृश्य‑विज्ञान (visual rhetoric) के ज़रिए घरेलू दर्शकों को ‘विश्व‑नेतृत्व’ का कथानक मिला.
तीसरा कार्यकाल और बदला राजनीतिक समीकरण
गठबंधन युग की रणनीति: 2024 में भाजपा को पूर्ण बहुमत न मिलने पर भी संचार‑अभियान मोदी के इर्द‑गिर्द ही केंद्रित है. ‘विकसित भारत 2047’ जैसे दीर्घकालिक नारों ने व्यक्तिगत नेतृत्व को संस्था‑निरपेक्ष बना दिया है.
जब अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने ‘सरकारी दबाव’ और ‘मानहानि मुक़दमों’ में तेज़ी की ओर संकेत किया, सरकार ने इसे ‘भारत‑द्वेषी’ बताकर खारिज किया. इसी तरह द वायर, न्यूज़लॉन्ड्री, स्क्रोल इत्यादि पर राजस्व या ईडी छापों के जरिये धमकाया गया.
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा का मीडिया प्रबंधन एक सुनियोजित, बहुआयामी रणनीति का परिणाम है, जो आक्रामकता, तकनीकी नवाचार से संचालित है. इस रणनीति की आलोचना होती रही है, खास तौर पर मीडिया की स्वतंत्रता पर सवाल उठाने के लिए. लेकिन यह निर्विवाद है कि भाजपा का मीडिया प्रबंधन भारतीय राजनीति में एक नया मानक स्थापित कर चुका है.
(दीपांकर शिवमूर्ति इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रिसर्च फ़ेलो हैं.)





